जानिये कैसे इच्छा नहीं करके और चुप रहकर भगवान् मिलेंगे, श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी के मुख से
राम राम
अन्तिम प्रवचन
* (ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराज के ३ जुलाई, २००५ को परमधाम पधारने के पूर्व दिनांक २९-३० जून, २००५ को गीताभवन, स्वर्गाश्रम में दिया गया अन्तिम प्रवचन)
एक बहुत श्रेष्ठ, बड़ी सुगम, बड़ी सरल बात है । वह यह है कि किसी तरह की कोई इच्छा मत रखो । न परमात्मा की, न आत्मा की, न संसार की, न मुक्ति की, न कल्याण की, कुछ भी इच्छा मत करो और चुप हो जाओ । शान्त हो जाओ । कारण कि परमात्मा सब जगह शान्तरूप से परिपूर्ण है । स्वतः-स्वाभाविक सब जगह परिपूर्ण है । कोई इच्छा न रहे, किसी तरह की कोई कामना न रहे तो एकदम परमात्मा की प्राप्ति हो जाय, तत्त्वज्ञान हो जाय, पूर्णता हो जाय !
यह सबका अनुभव है कि कोई इच्छा पूरी होती है, कोई नहीं होती । सब इच्छाएँ पूरी हो जायँ यह नियम नहीं है । इच्छाओं का पूरा करना हमारे वश की बात नहीं है, पर इच्छाओं का त्याग करना हमारे वश की बात है । कोई भी इच्छा, चाहना नहीं रहेगी तो आपकी स्थिति स्वतः परमात्मा में होगी । आपको परमात्मतत्त्व का अनुभव हो जायगा । कुछ चाहना नहीं, कुछ करना नहीं, कहीं जान नहीं, कहीं आना नहीं, कोई अभ्यास नहीं । बस, इतनी ही बात है । इतने में ही पूरी बात हो गयी ! इच्छा करने से ही हम संसार में बँधे हैं । इच्छा सर्वथा छोड़ते ही सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा में स्वतः-स्वाभाविक स्थिति है ।
प्रत्येक कार्य में तटस्थ रहो । न राग करो, न द्वेष करो ।
तुलसी ममता राम सों, समता सब संसार ।
राग न रोष न दोष दुख, दास भए भव पार ॥
(दोहावली ९४)
एक क्रिया है और एक पदार्थ है । क्रिया और पदार्थ यह प्रकृति है । क्रिया और पदार्थ दोनों से संबंध-विच्छेद करके एक भगवान् के आश्रित हो जायँ । भगवान् के शरण हो जायँ, बस । उसमें आपकी स्थिति स्वतः है । ‘भूमा अचल शाश्वत अमल सम ठोस है तू सर्वदा’‒ ऐसे परमात्मा में आपकी स्वाभाविक स्थिति है । स्वप्न में एक स्त्रीका बालक खो गया । वह बड़ी व्याकुल हो गयी । पर जब नींद खुली तो देखा कि बालक तो साथ में ही सोया है‒ तात्पर्य है कि जहाँ आप हैं, वहाँ परमात्मा पूरे-के-पूरे विद्यमान है । आप जहाँ हैं, वहीं चुप हो जाओ !!
‒२९ जून २००५, सायं लगभग ४ बजे
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श्रोता‒कल आपने बताया कि कोई चाहना न रखे । इच्छा छोड़ना और चुप होना दोनों में कौन ज्यादा फायदा करता है ?
स्वामीजी‒मैं भगवान् का हूँ, भगवान् मेरे हैं, मैं और किसी का नहीं हूँ, और कोई मेरा नहीं है । ऐसा स्वीकार कर लो । इच्छारहित होना और चुप होना‒दोनों बातें एक ही हैं । इच्छा कोई करनी ही नहीं है, भोगों की, न मोक्ष की, न प्रेम की, न भक्ति की, न अन्य किसी की ।
श्रोता‒इच्छा नहीं करनी है, पर कोई काम करना हो तो ?
स्वामीजी‒काम उत्साह से करो, आठों पहर करो, पर कोई इच्छा मत करो । इस बात को ठीक तरह से समझो । दूसरों की सेवा करो, उनका दुःख दूर करो, पर बदले में कुछ चाहो मत । सेवा कर दो और अन्तमें चुप हो जाओ । कहीं नौकरी करो तो वेतन भले ही ले लो, पर इच्छा मत करो ।
सार बात है कि जहाँ आप हैं, वहीं परमात्मा हैं । कोई इच्छा नहीं करोगे तो आपकी स्थिति परमात्मा में ही होगी । जब सब परमात्मा ही हैं तो फिर इच्छा किस की करें ? संसार की इच्छा है, इसलिये हम संसार में हैं । कोई भी इच्छा नहीं है तो हम परमात्मा में हैं ।
‒ ३० जून २००५, दिनमें लगभग ११ बजे
‘एक संतकी वसीयत’ पुस्तक से, पुस्तक कोड- 1633, पृष्ठ- संख्या- १४-१५, गीताप्रेस गोरखपुर
↪ ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज