भारत के शेयर बाजार में इस समय आईपीओ (Initial Public Offering) की जबरदस्त लहर चल रही है। जैसे दीवाली के पटाखे, नए-नए शेयर बाजार में लॉन्च हो रहे हैं—कुछ धमाकेदार प्रदर्शन कर रहे हैं जबकि कुछ जल्दी फीके पड़ जाते हैं। यह लेख 3000 शब्दों में बताएगा कि इस आईपीओ उत्साह के बीच निवेशकों को किन चीज़ों पर ध्यान देना चाहिए और किन गलतियों से बचना ज़रूरी है।
भारतीय आईपीओ बाज़ार की चमक और चकाचौंध
2025 में अब तक 90 कंपनियाँ भारतीय शेयर बाजार में सूचीबद्ध हो चुकी हैं और करीब 1.2 लाख करोड़ रुपये जुटाए हैं। यह संख्या पिछले साल के रिकॉर्ड को पीछे छोड़ने वाली है। फिजिक्सवाला, मीशो, ग्रो, लेंसकार्ट और आईसीआईसीआई प्रूडेंशियल एएमसी जैसे नाम बाजार में उतरने की तैयारी में हैं। हालांकि हर चमकती लिस्टिंग निवेशकों के लिए सुनहरा अवसर नहीं होती।
एलजी इलेक्ट्रॉनिक्स के आईपीओ ने 50% प्रीमियम पर धमाकेदार शुरुआत की, जबकि टाटा कैपिटल के आईपीओ ने फ्लैट प्रदर्शन किया। पिछले साल के भीतर 47 कंपनियों के शेयर इश्यू प्राइस से नीचे जा चुके हैं। इससे स्पष्ट है कि सभी निवेशकों को समान लाभ नहीं मिल रहा।
आईपीओ फ्लिपिंग — त्वरित मुनाफे का मायाजाल
कई निवेशक ‘आईपीओ फ्लिपिंग’ की प्रवृत्ति में फँस जाते हैं — यानी लिस्टिंग के तुरंत बाद लाभ लेकर बाहर निकल जाना। 2024 में सेबी के एक अध्ययन ने बताया कि खुदरा निवेशकों ने लिस्टिंग के एक सप्ताह के भीतर अपने 42.7% आईपीओ शेयर बेच दिए। उच्च सब्सक्रिप्शन और ऊँचे लिस्टिंग गेन ने इस प्रवृत्ति को और बढ़ाया।
हालांकि त्वरित मुनाफा आकर्षक लगता है, विशेषज्ञ मानते हैं कि यह अधिक सट्टेबाजी है, रणनीति नहीं। एसकेजी इन्वेस्टमेंट के अभिषेक मिश्रा के अनुसार, “आईपीओ फ्लिपिंग से अल्पकालिक लाभ मिलता है, लेकिन लंबे समय में असली संपत्ति अनुशासित निवेश और मूलभूत कारकों पर ध्यान देने से बनती है।”
जब आईपीओ की चकाचौंध फीकी पड़ती है
हर एलजी इलेक्ट्रॉनिक्स या अर्बन कंपनी की तरह एक ओला इलेक्ट्रिक या फर्स्टक्राई भी होती है—जो शानदार शुरुआत के बाद गिर जाती है। जैसे 2007 में रिलायंस पावर और डीएलएफ ने निवेशकों को निराश किया था, वैसे ही आज भी कई हाई-प्रोफाइल लिस्टिंग कमजोर प्रदर्शन कर रही हैं।
विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि बाजार की मौजूदा “पार्टी” हमेशा नहीं चलेगी। बहुत सारे आईपीओ एक साथ आने से निवेशकों का पूंजी पूल बंट जाता है। इससे तरलता घटती है और पोस्ट-लिस्टिंग मूल्य का सही निर्धारण नहीं हो पाता।
असली समस्या: मूल्यांकन का बुलबुला
आज के दौर में अधिकांश कंपनियाँ ईमानदार हैं, उनके वित्तीय विवरण साफ हैं। समस्या उनकी क़ीमत में है। ओमनीसाइंस कैपिटल के विकास गुप्ता के मुताबिक, “समस्या गुणवत्ता की नहीं, बल्कि मूल्यांकन की है। जब भावनाएँ और बाजार मूल्यांकन चरम पर होते हैं, प्रमोटर बेचते हैं। इससे आम निवेशक के पास कुछ खास नहीं बचता।”
बहुत से आईपीओ ‘ऑफर फॉर सेल’ (OFS) होते हैं — यानी जुटाया गया पैसा कंपनी में नहीं, बल्कि पुराने निवेशकों की जेब में जाता है। ऐसे में यह समझना ज़रूरी है कि अगर अंदरूनी निवेशक बेच रहे हैं, तो क्यों?
सही मूल्य पर निवेश बनाम ऊँचे भाव पर ठोकर
मिश्रा कहते हैं कि आईपीओ में बने रहना या बाहर निकलना, कंपनी के पहले कुछ तिमाहियों के प्रदर्शन पर निर्भर होना चाहिए। सिर्फ भाव देखकर नहीं, बल्कि कमाई वृद्धि, बाज़ार हिस्सेदारी और प्रबंधन की पारदर्शिता को देखें।
यदि किसी कंपनी का आईपीओ बहुत ऊँचे P/E (जैसे 60) पर आया है, तो उसे कम से कम 25% वार्षिक लाभ वृद्धि चाहिए ताकि मूल्यांकन उचित रहे। अगर यह 18-20% तक सीमित हो जाए, तो शेयर गिरने की संभावना अधिक होगी—even अगर कंपनी अच्छी हो।
इस स्थिति में बेहतर है कि निवेशक अपनी रणनीति पुनः मूल्यांकन करें — ज़रूरी नहीं कि हर गिरावट पर और खरीदना सही निर्णय हो।
समय पर एक्ज़िट — सफलता का रहस्य
जैसे निवेश से पहले सही चुनाव ज़रूरी है, वैसे ही सही समय पर बाहर निकलना भी आवश्यक है।
प्रोटीन ई-गव टेक्नोलॉजीज का उदाहरण लें — पहले साल शेयर 133% ऊपर गए, लेकिन दो साल में केवल 5% लाभ पर टिके रहे। वहीं स्टैलियन इंडिया फ्लोरोकेमिकल्स की कीमत 338% बढ़ी उन निवेशकों के लिए जो बने रहे।
यानी, जल्दबाज़ी से बाहर निकलना या बहुत देर तक टिके रहना दोनों ही नुकसानदेह हो सकते हैं।
घाटे से डर नहीं, अवसर का आकलन करें
निवेशक अक्सर “डिस्पोज़िशन इफ़ेक्ट” के शिकार हो जाते हैं — यानी मुनाफे में शेयर जल्द बेच देना और घाटे में अटके रहना। 2024 की सेबी रिपोर्ट बताती है कि जब रिटर्न 20% से ऊपर जाता है, तो 67.6% निवेशक शेयर बेच देते हैं। जबकि जब शेयर घाटे में होते हैं, तो सिर्फ 23.3% निवेशक ही बाहर निकलते हैं।
यह मानसिकता लंबी अवधि में पूंजी को फँसाती है।
बहुत बार घाटे से डरने की बजाय अवसर लागत (opportunity cost) पर ध्यान देना चाहिए। पूंजी को ऐसे निवेश में लगाना जहाँ बेहतर वृद्धि की संभावना हो, ज़्यादा लाभकारी साबित होता है।
म्यूचुअल फंड्स के सबक
एडलवाइस म्यूचुअल फंड का ‘रिसेंटली लिस्टेड आईपीओ फंड’ इस क्षेत्र में दिलचस्प अंतर्दृष्टि देता है। यह फंड किसी कंपनी से बाहर निकलता है जब—
- कंपनी अपना बिजनेस मॉडल बदल ले,
- वैल्यूएशन वास्तविकता से बहुत ज़्यादा हो जाए,
- क्षेत्रीय या कॉर्पोरेट गवर्नेंस से जुड़ी नकारात्मक खबरें आएं।
इनसे निवेशकों को सीखना चाहिए कि सतत निगरानी और पुनर्मूल्यांकन किसी भी निवेश रणनीति का अभिन्न अंग है।
निवेशकों के लिए सरल सुझाव
- आईपीओ को लॉटरी न समझें — हर नई कंपनी में निवेश भाग्य का खेल नहीं, डेटा का निर्णय होना चाहिए।
- फ्लिपिंग से बचें — जितनी जल्दी कमाते हैं, उतनी जल्दी मौका खोते हैं।
- एग्जिट प्लान बनाएं — खरीदते समय ही तय करें कि कब और क्यों बेचेंगे।
- मूलभूत चीज़ों पर ध्यान दें — कंपनी की आय, मुनाफ़ा, और उद्योग का भविष्य देखें।
- अवसर लागत समझें — पुराना घाटे वाला निवेश छोड़कर पूँजी नई संभावनाओं में लगाएँ।
निष्कर्ष
भारतीय आईपीओ बाजार चमकदार दिखता है, लेकिन इस चमक के पीछे गहराई से सोचने की जरूरत है। मूल्यांकन, भावनाएँ और भीड़ का असर मिलकर कई बार भ्रम पैदा कर देते हैं। जो निवेशक धैर्य और अनुशासन बरतते हैं, वही लंबी दौड़ में लाभ कमाते हैं।
सिर्फ लिस्टिंग डे का रोमांच नहीं, बल्कि बाद के कई तिमाहियों का व्यावहारिक आकलन और विवेकपूर्ण एक्ज़िट आपको असली “वेल्थ क्रिएशन” की राह पर ले जाएगा।
यह लेख बताता है कि आईपीओ में निवेश सिर्फ जल्दी कमाई का ज़रिया नहीं है—यह एक यात्रा है जिसमें विवेक, मूलभूत समझ और समय का संयोजन ही सफलता की कुंजी है।







