प्रश्न-दो-चार लड़के हों और उनमें से कोई साधु-संन्यासी बन जाय तो कोई बात नहीं, पर किसीका एक ही लड़का हो, वह साधु-संन्यासी बन जाय तो उसके माता-पिता किसके सहारे जियें ?
उत्तर- उस लड़के को चाहिये कि जबतक माता-पिता हैं, तब तक उनकी सेवा करता रहे, उनको छोड़े नहीं; क्योंकि भगवत्प्राप्ति में साधु होना कोई कारण नहीं है, प्रत्युत संसार से वैराग्य और भगवान में प्रेम होना ही कारण है। अतः वह माता-पिता की सेवा करते हुए ही भजन-स्मरण करे तो उसके लिये भगवत्प्राप्ति में कोई बाधा नहीं है, प्रत्युत माता-पिता की प्रसन्नता से भगवत्प्राप्ति में सहायता ही मिलेगी।
तात्पर्य है कि माता-पिताके ऋण को अदा किये बिना उनका त्याग नहीं करना चाहिये। परन्तु तीव्र वैराग्य हो जाय, भगवान्के चरणों में अनन्य प्रेम हो जाय, ऐसी अवस्था में माता-पिताकी सेवा छूट जाय तो उसको दोष नहीं लगेगा।
जो घरमें बैठा है, पर माँ-बाप की सेवा नहीं करता केवल अपने स्त्री-पुत्रोंके पालनमें ही लगा है, उसको दोष (पाप) लगेगा – ऐसे ही जो माँ-बाप को, घर-परिवारको छोड़कर साधु बना है और मकान, आश्रम बनाता है, रुपये इकट्ठा करता है, चेला- चेली बनाता है, ऐश-आराम करता है, उसको माँ-बापकी सेवा न करने का पाप लगेगा ही।
यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक “गृहस्थ कैसे रहे ?” से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुख जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.