बालकों को शिक्षा कैसे दी जाय, जिससे वे श्रेष्ठ बन जायँ ?

प्रश्न – बालकों को शिक्षा कैसे दी जाय, जिससे वे श्रेष्ठ बन जायँ ?

उत्तर- बालक प्रायः देखकर ही सीखते हैं। इसलिये माता- धानके पिताको चाहिये कि वे उनके सामने अपने आचरण अच्छे रखें, अपना जीवन संयमित और पवित्र रखें। ऐसा करनेसे बालक अच्छी बातें सीखेंगे और श्रेष्ठ बनेंगे।

बालकों की उन्नतिके लिये एक नम्बरमें तो माता-पिता अपने आचरण अच्छे रखें और दो नम्बरमें उनको अच्छी बातें सुनायें, ऊँचे दर्जेकी शिक्षा दें, भक्तोंके और भगवान्के चरित्र सुनायें। ल अच्छी शिक्षा वह होती है, जिससे बालक व्यवहारमें परमार्थकी कला सीख जायें। इस विषयमें थोड़ी बातें बतायी जाती हैं।

माता-पिता कहीं बाहर जाना चाहते हैं तो वे बच्चोंसे कहते हैं कि ‘तुम यहीं रहो’। ऐसा कहनेसे बच्चे मानते नहीं, जिद करते हैं, जिससे माता-पिताको भी विक्षेप हो जाता है और बच्चे भी दुःखी हो जाते हैं तथा घरमें अशान्ति हो जाती है। अतः बच्चोंको पहले से ही यह कह देना चाहिये कि ‘हम कहीं जायें तो जिद मत किया करो; जैसा हम कहें, वैसा किया करो।’ रोज दिन में दो तीन बार ऐसा कह देनेसे बच्चे इस बातको स्वीकार कर लेंगे फिर कहीं जाते समय बच्चों को कह दें कि ‘जिद नहीं करना; हम जैसा कहें, वैसा करना।’ तो वे आपकी बात मान लेंगे।

घर में मिठाई आती है, फल आता है, अच्छा खाद्य पदार्थ आता है तो बच्चा उसको लेनेके लिये जिद करता है। अतः जिस समय खाद्य पदार्थ सामने न हो, उस समय दिनमें दो-तीन बान बच्चेसे कह देना चाहिये कि ‘कोई खानेकी चीज हो तो पहले दूसरेको देनी चाहिये, बची हुई खुद खानी चाहिये।’ फिर बढ़िय चीज सामने आनेपर वह जिद करे तो उस समय उससे कहें कि ‘देखो बेटा! जिद नहीं करना और दूसरोंको खिलाकर खाना- बाँटकर खाना, वैकुण्ठमें जाना।’ फिर वह जिद नहीं करेगा। इन तरह आप बच्चोंको जो-जो बातें सिखाना चाहते हैं, उन बातोंक दिनमें दो-तीन बार बच्चोंसे कह दिया करें और उनसे प्यारपूर्वक स्वीकार करा लिया करें।

बच्चोंको अच्छी-अच्छी बातें सिखानी चाहिये; जैसे- ‘देख बेटा! कभी किसी चीजकी चोरी नहीं करना। माँसे माँगकर लेन न दे तो रोकर लेना, पर चोरी नहीं करना। छोटे भाई-बहनों प्यार करो। उनको खिलाओ, खेलाओ। जैसे भगवान् राम भ आदिसे प्यार करते थे, प्यारसे समझाते थे, ऐसे ही तुम भी अप भाई-बहनोंके साथ प्यारसे रहो, उनसे लड़ाई मत करो। आपस वाद-विवाद हो जाय तो उनकी बात मानो। अपनी बात मनानेव जिद मत करो। माँ-बाप जैसा कहें, उसके अनुसार घरका काम धंधा करो। समय फालतू मत खोओ, अच्छे काममें लगे रह दूसरोंका हक मत मारो। दूसरोंकी चीजको अपनी मत मानो.

चीजों को अच्छे-से-अच्छे काम में लगाओ, आदि-आदि।’ इस तरह बच्चोंको जो-जो शिक्षा देनी हो, उसको रोज दो-तीन बार बच्चोंसे कह देना चाहिये। इससे उनके भीतर इन बातोंका असर हो जायासे तात्पर्य है कि बालकोंको एक तो अच्छा आचरण करके दिखाना चाहिये और दूसरा, उनको अच्छी शिक्षा देनी चाहिये। इस विषयमें माता-पिताको भगवान्‌के इन वचनोंका मनन करना चाहिये-

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन ।

नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ।।

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।

मम वर्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् ।

सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥

(गीता ३।२२-२४)

‘हे पार्थ! मुझे तीनों लोकोंमें न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है, फिर भी मैं कर्तव्य-कर्ममें ही लगा रहता हूँ। अगर मैं किसी समय सावधान होकर कर्तव्य- कर्म न करूँ तो बड़ी हानि हो जाय; क्योंकि मनुष्य सब प्रकारसे मेरे ही मार्गका अनुसरण करते हैं। यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ और मैं संकरताको करनेवाला तथा इस समस्त प्रजाको नष्ट करनेवाला बनूँ।’

यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक “गृहस्थ कैसे रहे ?” से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुख जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.

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