धर्म और अंधविश्वास: अंतर को कैसे समझें? (Shri Hit Premanand Govind Sharan Ji Maharaj के प्रवचन पर आधारित)

धर्म के नाम पर अंधविश्वास: पहचान और समाधान

हमारे समाज में अक्सर धर्म के नाम पर कई ऐसी प्रथाएँ, मान्यताएँ और आचरण देखने को मिलते हैं, जिन्हें लोग धर्म मान लेते हैं, जबकि वे वास्तव में अंधविश्वास होते हैं। श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज ने अपने प्रवचन (05:55-12:41 मिनट) में इस विषय पर गहराई से प्रकाश डाला है कि धर्म और अंधविश्वास में फर्क कैसे समझें और सच्ची भक्ति का मार्ग क्या है1।

धर्म का स्वरूप क्या है?

धर्म वह है, जो शास्त्रों के अनुसार है, जिसमें किसी के प्रति कपट, पाखंड, दंभ, या हिंसा न हो। सनातन धर्म की मूल भावना है – सर्व कल्याण, सबका सुख, और सबमें भगवत भाव। हमारे धर्म में वृक्ष, जल, पशु, पक्षी, सभी की पूजा की जा सकती है, क्योंकि सबमें भगवान का अंश है। पूजा का निषेध नहीं है, लेकिन किसी भी जीव की हिंसा करके, बलि देकर, या किसी को कष्ट देकर की गई पूजा धर्म नहीं, अंधविश्वास है1।

अंधविश्वास क्या है?

अंधविश्वास वह है, जिसमें बिना तर्क, बिना शास्त्र प्रमाण के, केवल मान्यताओं या डर के आधार पर कोई आचरण किया जाए। जैसे – किसी विशेष स्थान पर टोटका करना, बलि देना, या यह मानना कि यदि कोई विशेष कर्म नहीं किया तो अनिष्ट हो जाएगा। महाराज जी स्पष्ट करते हैं कि “शास्त्र प्रमाण” के बिना कोई भी कर्म अंधविश्वास की श्रेणी में आता है। उन्होंने कहा –

“तस्मात् शास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्य व्यवस्थिते।”अर्थात्, शास्त्र ही प्रमाण है कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं1।

धर्म और अंधविश्वास में फर्क कैसे समझें?

शास्त्र आधारित हो:जो भी आचरण, पूजा, या साधना शास्त्रों से प्रमाणित है, वह धर्म है। जो केवल परंपरा, डर, या किसी के कहने पर की जाए, वह अंधविश्वास हो सकता है।हिंसा रहित हो:धर्म कभी भी किसी जीव की हिंसा, बलि, या कष्ट को स्वीकार नहीं करता। अगर किसी पूजा में हिंसा है, वह अंधविश्वास है।कपट, पाखंड, दिखावा न हो:धर्म में कपट, पाखंड, दंभ, या नाटक का कोई स्थान नहीं। दिखावे के लिए किया गया कोई भी कर्म धर्म नहीं, बल्कि अंधविश्वास है।भगवत भाव प्रधान हो:सच्ची भक्ति में सबमें भगवान को देखना, सबका कल्याण सोचना, और अपने आचरण को शुद्ध रखना आवश्यक है। केवल बाहरी कर्मकांड, तंत्र-मंत्र, टोटके, या डर के कारण किया गया कोई भी कार्य अंधविश्वास है1।

सच्ची भक्ति का मार्ग

महाराज जी कहते हैं, सच्ची भक्ति का अर्थ है –

  • भगवान के शरणागत होकर, निरंतर उनका नाम जपना

  • किसी के साथ धोखा न करना

  • अपने आचरण को शुद्ध करना

  • समाज की बजाय स्वयं के सुधार पर ध्यान देना

यदि हम अपने आप को सुधारें, तो समाज भी सुधर जाएगा। समाज में व्याप्त अंधविश्वास तभी दूर होंगे, जब हर व्यक्ति अपने भीतर शुद्धता लाएगा1।

अंधविश्वास से बचने के उपाय

शास्त्र, संतों और गुरुजनों की बातों को समझें:बिना शास्त्र प्रमाण के किसी भी बात को न मानें।सत्संग, नाम-जप और भगवत कथा में मन लगाएं:इससे विवेक जाग्रत होता है और अंधविश्वास दूर होते हैं।सकारात्मक, शुद्ध संगति रखें:गलत संगति, गलत आचरण की ओर ले जाती है, जिससे अंधविश्वास बढ़ता है।अपने आचरण को बार-बार जांचें:क्या मैं जो कर रहा हूँ, वह किसी के लिए कष्टकारी, हिंसक या दिखावटी तो नहीं?

भगवान की प्राप्ति का सच्चा मार्ग

महाराज जी उदाहरण देते हैं –

  • एक ईंट को भगवान मानकर पूजा की जा सकती है,

  • खंभे से नरसिंह भगवान प्रकट हो सकते हैं,

  • कुत्ते में भगवत भावना से विट्ठल भगवान प्रकट हो सकते हैं।

अर्थात्, भगवान हर जगह हैं, भावना शुद्ध होनी चाहिए। स्थान, वस्तु, या बाहरी कर्मकांड से अधिक महत्वपूर्ण है – सच्चा भाव और शुद्ध आचरण1।

समाज में अंधविश्वास क्यों बढ़ता है?

  • जब धन, दिखावा, और बाहरी कर्मकांड को प्रधानता दी जाती है,

  • जब शुद्ध भक्ति, भगवत नाम, और शास्त्र की मर्यादा को भुला दिया जाता है,

  • जब लोग दूसरों के दोष देखने में लगे रहते हैं, स्वयं को सुधारने का प्रयास नहीं करते।

महाराज जी कहते हैं –

“हमको क्या करना है? हम भगवान के विशुद्ध भक्त बने, निरंतर भगवान का नाम जप करें, किसी के साथ धोखा न करें।”

अंतिम निष्कर्ष

धर्म और अंधविश्वास में अंतर समझने के लिए सबसे जरूरी है –

  • शास्त्रों की कसौटी पर हर आचरण को परखना

  • हिंसा, कपट, पाखंड, और दिखावे से बचना

  • शुद्ध भावना और शुद्ध आचरण को अपनाना

  • समाज की बजाय स्वयं के सुधार पर ध्यान देना

सच्ची भक्ति वही है, जिसमें भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण, नाम-जप, और सबके कल्याण की भावना हो। अंधविश्वास से बचने के लिए शास्त्र, संत, और सच्चे गुरु का मार्गदर्शन लें, और अपने जीवन को शुद्ध, सरल, और भगवत भाव से युक्त बनाएं1।

समाप्त!

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