
भोजन और भजन पर उसका प्रभाव: सारांश एवं विवरण
आध्यात्मिक मार्ग पर भोजन का महत्व केवल उसकी किस्म या शाकाहारी अथवा मांसाहारी होने में नहीं है, बल्कि यह भी मायने रखता है कि वह भोजन किस पैसे से लिया गया, किस भावना से बनाया गया, और किसने आपको वह भोजन दिया है। संत श्री हित प्रेमानंद जी महाराज की वाणी में इस विषय पर निम्नलिखित प्रमुख बिंदु निकलकर आते हैं।
भोजन की शुद्धि का स्रोत
- केवल लहसुन-प्याज या तामसिक पदार्थों से भोजन दोषपूर्ण नहीं बनता, बल्कि ऐसा धन जिससे भोजन क्रय किया गया है, वह भी भोजन को अशुद्ध या शुद्ध बना सकता है। यदि धन पाप या अन्य अधर्म से कमाया गया हो, तो वही अशुद्धि भोजन में मिलेगी और भजन पर असर डालेगी। चाहे वह मूंग की दाल हो या रोटी, धन की प्रकृति का असर उसमें आता है।
महाभारत की घटना का उदाहरण
- महाभारत की कथा के माध्यम से, भीष्म पितामह और द्रौपदी संवाद का उदाहरण दिया गया है—जब द्रौपदी ने क्रोधित होकर पूछा कि सभा में जब उसके साथ अन्याय हो रहा था, तब भीष्म जी क्यों नहीं बोले। इस पर भीष्म जी ने स्वयं मष्तक झुकाते हुए कहा कि वह दुर्योधन का अन्न छ: महीने तक खाते रहे, इसलिए उस समय उनकी बुद्धि पर पाप प्रभाव था। जैसे ही उस पाप का निवारण बाणों की शैय्या पर लेटकर हुआ, उनकी बुद्धि पवित्र हुई और वे धर्मयुक्त उत्तर देने में सक्षम हो सके।
भोजन के प्रभाव के अन्य प्रसंग
- संत समाज के एक प्रसंग में, किसी गाँव के धनी व्यापारी द्वारा संतों को भोजन कराया गया, परन्तु अगले दिन सभी संतों ने अनुभव किया कि उनका संयम, ब्रह्मचर्य और आध्यात्मिक शक्ति विचलित हो गई। पूछने पर व्यापारी ने बताया कि उसकी कोई संतान नहीं, अतः वह संतान-प्राप्ति की कामना से संतों को भोजन करा रहा था। इससे सिद्ध होता है कि भोजन के पीछे भावना भी, चाहे धन शुद्ध हो, प्रभाव डालती है।
भावना और साधना में भोजन
- जब धन भगवान के प्रति श्रद्धा-भाव से कमाया गया हो और श्रद्धा भाव से किसी साधु व भक्त को भोजन दिया जाए, तो उसी भोजन से भजन और साधना में वृद्धि होती है। परंतु वही भोजन यदि किसी गलत भाव या अशुद्ध पैसे से आता है तो उसमें विकार, राग, द्वेष, ईर्ष्या और अन्य बुरे गुण उत्पन्न होते हैं।
बाज़ार का भोजन और उसकी प्रक्रिया
- बाज़ार के खाने-पीने की वस्तुओं की ओर आकर्षण नहीं करना चाहिए, क्योंकि वहाँ बनाया गया भोजन शुद्धि-अशुद्धि की प्रक्रिया में अनेक बार गिरता है; बनाने वालों की भावना और स्वच्छता में अक्सर चूक होती है। इससे भोजन की ऊर्जा और गुण नष्ट हो जाते हैं, जो सीधा मन व भावनाओं पर असर करता है। इसीलिए कहा गया है “जैसा खाओ अन्न, वैसा बने मन”।
भजन और वैष्णव अपराध
- जब भक्त या साधक को भीतर से लगता है कि उसका भजन रुक गया है या मन अशांत है, तो उसे दो जगह देखना चाहिए—वैष्णव का किसी भी प्रकार से अपराध तो नहीं हुआ? या भोजन में कहीं अशुद्धता तो नहीं आई? दोनों ही साधक को मार्ग पर सफलतापूर्वक आगे बढ़ने में महत्वपूर्ण हैं।
मुख्य उद्धरण (Quotes)
- “लहसुन-प्याज ही केवल भोजन का दोष नहीं है। भोजन का दोष धन भी है।”
- “जिस धन से भोजन आया है, उसका प्रभाव हमारे ऊपर पड़ेगा।”
- “अन्न का बड़ा प्रभाव होता है।”
- “जैसा खाओ अन्न, वैसा बने मन।”
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