तृतीय माला -प्रेम दोमें नहीं होता। वह एक ही में होता है

Love does not exist between two. It exists only in one

SPRITUALITY

आदरणीय परम पूज्य श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार जी की लाभदायक पुस्तक 'सत्संग के बिखरे मोती '

11/17/20241 min read

प्रेम दोमें नहीं होता। वह एक ही में होता है

४३-जहाँ देखता है, वहीं श्याम एक तो यह अवस्था होती है। दूसरे प्रकारकी अवस्था यह है कि श्यामके सिवा और कुछ सुहाता ही नहीं। दोनों अवस्थाएँ पवित्रतम हैं, पर बाहरी लीलामें भेद होता है।

४४-कहीं तो श्यामसुन्दर नहीं दीखते और उनके लिये अभिसार होता है तथा कहीं यह भाव होता है- यहाँ भी वही, वहाँ भी वही - 'जित देखूँ तित स्याममयी है।' ये दोनों भाव वस्तुतः दो नहीं - एक ही भगवत्प्रेमकी दो अवस्थाएँ हैं।

४५-भगवत्प्रेममें एक बात तो निश्चय ही होगी कि प्रेमास्पद भगवान् और प्रेमके बीचमें किसी दूसरेके लिये स्थान नहीं रहेगा।

४६-प्रेम दोमें नहीं होता। वह एक ही में होता है और एक ही प्रेमास्पद सब जगहसे प्रेमकी दृष्टिको छा लेता है। एक ही प्रेमास्पद सर्वत्र फैल जाता है।

४७-प्रेमका विकास होनेपर सर्वत्र भगवान् दीखते हैं।

४८-प्रेमास्पद भगवान्‌का रूप अनन्त होनेसे प्रेमीकी प्रेममयी अवस्था भी अनन्त है। प्रेमियोंकी न मालूम क्या-क्या अवस्थाएँ होती हैं।

४९-प्रेम अखण्ड होता है।

५०-भगवान् प्रेम है और प्रेम ही भगवान् है।

५१-प्रेम भगवत्स्वरूप है, मन-वाणीका विषय नहीं। इसकी व्याख्या हो ही नहीं सकती। यह तो अनुभवकी वस्तु है।

५२-जहाँसे स्वार्थका त्याग होता है, वहींसे भगवत्प्रेमका आरम्भ होता है। स्वार्थ और प्रेम-दोनों एक साथ रह ही नहीं सकते।

५३-सांसारिक प्रेममें भी, यह निश्चित है कि जहाँ त्याग नहीं है, वहाँ प्रेम नहीं है। जहाँ प्रेम है, वहाँ त्याग होगा ही ५४-जैसे-जैसे भगवान्के प्रति प्रेम बढ़ता जायगा, वैसे-वैसे स्वार्थका त्याग होता चला जायगा।

५५-जहाँ अपनी चाह है, परवा है, त्यागकी तैयारी नहीं है, वहाँ प्रेम कहाँ ?

५६-मामूली किसी मनुष्यसे प्रेम कीजिये, उसमें भी त्यागकी आवश्यकता होगी।

५७-माँका अपने बच्चेके लिये प्रेम रहता है। देखिये, वह बच्चेके लिये कितना त्याग करती है। इसी प्रकार गुरु-शिष्य, पति-पत्नी-जहाँ भी प्रेमका सम्बन्ध है, वहाँ त्याग है ही।

५८-प्रेम हुए बिना असली त्याग नहीं होता।

५९-सब प्रकारका सहन (तितिक्षा) प्रेममें होता है। प्रेम करना आरम्भ कर दे, फिर तितिक्षा तो अपने-आप आ जायगी।

माँ बीमार है, पर बच्चा परदेशसे आ गया; माँ उठ खड़ी होगी, उस बीमारीकी अवस्थामें ही बच्चेके लिये भोजन बनाने लगेगी। यह तितिक्षा प्रेमने ही उत्पन्न कर दी है।

६०-यह सत्य है कि प्रेमका वास्तविक और पूर्ण विकास भगवत्प्रेममें होता है; पर जहाँ कहीं भी इसका आंशिक विकास देखा जाता है, वहाँ-वहाँ ही त्याग साथ रहता है। गुरु गोविन्दसिंहके बच्चोंमें धर्मका प्रेम था, उन्होंने उसके लिये हँसते-हँसते प्राणोंकी बलि चढ़ा दी। सतीत्वमें प्रेम होनेके कारण अनेक आर्य रमणियोंने प्राणोंकी आहुति दे दीं।

६१-प्रेम होनेपर त्याग करना नहीं पड़ता, अपने-आप हो जाता है और उसीमें आनन्दकी उपलब्धि होती है।

६२-प्रेममें पवित्रता भी अपने-आप आ जाती है, क्योंकि छल-कपट, बेईमानी आदि स्वार्थमें ही रहते हैं और प्रेममें स्वार्थ रहता नहीं।

६३-जहाँ विशुद्ध प्रेम है, वहाँ मन विशुद्ध है ही।

६४-भगवान्‌के प्रति प्रेम बढ़ाइये, अपने-आप अन्तःकरण शुद्ध होगा।

६५-असली प्रेममें पाप नहीं रह सकता। पाप होते हैं कामनाके कारण और प्रेममें कामना रहती नहीं। जब कामना ही नहीं, तब पाप कैसे रहें।

६६-प्रेम तपरूप है।

६७-जो दे नहीं सकता वह प्रेमी नहीं। उत्सर्ग प्रेममें स्वभावसे ही रहता है।

६८-भगवत्प्रेम अन्तिम चरम और परम पुरुषार्थ है।

६९-विषयोंका प्रेम प्रेम नहीं है।

७०-मोक्षका परित्याग विषयकामी भी करता है और भगवत्प्रेमी भी, परन्तु दोनोंके त्यागमें महान् अन्तर है।

७१-विषयकामीको मोक्ष मिलता नहीं, पर भगवत्प्रेमीको त्याग देनेपर भी मोक्ष नित्य प्राप्त रहता है।

७२-भगवत्प्रेम अत्यन्त दुर्लभ होनेपर भी सहज ही प्राप्त हो सकता है, यदि कोई इसके लिये भगवान्पर निर्भर हो जाय।

७३-प्रेम प्राप्त करनेके लिये त्याग आवश्यक है। बिना त्यागके प्रेम नहीं मिलता।

७४-यदि हम सचमुच चाहें तो भगवान् कृपा करके अपने-आप त्याग करवा देते हैं। पर सच्ची बात यह है कि हम त्याग (जागतिक विषयोंके प्रेमका त्याग) करना नहीं चाहते।

७५-हम चाहते हैं हमें प्रेम मिल जाय, पर विषय छोड़ना चाहते नहीं। विषयोंमें सुखकी भ्रान्ति ही इसका कारण है।

७६-विषयासक्ति प्रेममें बड़ी बाधक है।

७७-वास्तविक रूपमें देखें तो समस्त चीजें भगवान्की हैं, इनपर उन्हींका अधिकार है। आपको तो मिथ्या ममत्व त्यागना है। चीजें भगवान्‌की होकर आपके पास ही रहेंगी

७८-जो विषय-जो पदार्थ अभी जलाते हैं, वे ही भगवान्‌के बना दिये जानेपर, उनमेंसे आसक्ति निकल जानेपर सुख देनेवाले हो जायेंगे। उनमें ममता और आसक्ति ही हमें जलाती है।

७९-भगवत्प्रेम प्राप्त होनेपर मनुष्य जहाँ भी रहे, सुखी ही रहता है।

८०-प्रेमीका अपना कुछ रहता नहीं, सब भगवान्‌का हो जाता है। पुत्र, धन, प्रतिष्ठा ज्यों-के-त्यों रहते हैं, कहीं चले नहीं जाते, पर ममताका स्थान बदल जाता है। समस्त जगत्से ममता निकलकर एक स्थानमें केवल भगवान्में जाकर ठहर जाती है।

८१-प्रेमीकी दृष्टिमें सब कुछ प्रेमास्पद ही हो जाता है; उसकी दृष्टि जहाँ जाती है, उसे प्रेमास्पद ही दीखते हैं।

८२-प्रेमीके लिये सदा सर्वत्र आनन्द-ही-आनन्द है।

८३-जहाँ 'स्व' भगवान्‌में जाकर मिला कि प्रेमी बन गये।

८४-यह नियम है-जहाँ प्रेमी रहता है, वहाँ सुख है ही तथा जहाँ द्वेष है, वहाँ दुःख रहेगा ही।

८५-प्रेमीके लिये वैरका स्थान, वैरका कोई पात्र रहता ही नहीं- अब हौ कासों बैर करौं।

कहत पुकारत प्रभु निज मुख ते हौं घटघट बिहरों ।। उसके मनकी ऐसी दशा हो जाती है।

८६-प्रेमका उत्तरोत्तर विकास होना ही मनुष्यकी वास्तविक उन्नति है।

८७-आज जगत्में 'स्व' इतना संकुचित हो गया है कि प्रायः 'परिवार' का अर्थ किया जाता है हम और हमारी स्त्री। इससे ठीक विपरीत, भारतवर्षके ऋषियोंका सिद्धान्त तो अत्यन्त विशाल है-

'वसुधैव कुटुम्बकम्', स्वयं भगवान् 'सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि' इस प्रकारका अनुभव करनेकी प्रेरणा करते हैं।

८८-भगवत्प्रेमके लिये साधना करनी चाहिये, जैसे भी हो इसकी

उपलब्धि करनी चाहिये। ८९-जिस दिन मनुष्य सब भूतोंमें अपने-आपको तथा सब भूतों को

आत्मामें स्थित देखता है, फिर भय-संकोच सब नष्ट हो जाते हैं। उसके लिये केवल आनन्द-ही-आनन्द रह जाता है।

९०-प्रेमकी महिमा अद्भुत है। इतने बड़े भगवान् इतने छोटे हो जाते हैं कि बच्चोंमें आकर बच्चे बनकर खेलते हैं। एक बार खेल हो रहा था; खेलकी यह शर्त थी कि जो हारे वह घोड़ा बने। भगवान् हारे तथा घोड़ा बने।

उवाह कृष्णो भगवान् श्रीदामानं पराजितः ।

वृषभं भद्रसेनस्तु प्रलम्बो रोहिणीसुतम् ॥

(श्रीमद्धा० १०। १८। २४)

९१-भगवान् प्रेमके वश होकर क्या नहीं करते- सब कुछ करते हैं।

९२-विश्वम्भर होकर भगवान् माँसे कहते हैं कि 'हमें भूख लगी है, दूध पिलाओ!' यह है प्रेमीकी महिमा।

९३-जिस प्रेममें भगवान् मित्र, पुत्र, पति बनकर खेलने लग जाते हैं, उस प्रेमके सामने मोक्ष क्या वस्तु है।

९४-तामस भोगोंके पीछे पड़कर हमलोगोंने भगवान्‌को भुला रखा है। इस परिस्थितिमें तो बस 'हारेको हरिनाम' यही आश्रय है।

९५-भगवत्प्रेम बहुत ऊँची वस्तु है, पर कम-से-कम इसकी प्राप्तिकी इच्छा तो होनी चाहिये। इच्छा होगी तो इसके लिये प्रयत्न भी होगा।

९६-भगवत्प्रेमकी बात सुनकर मनुष्य डरने लगता है कि कहीं सब कुछ चला न जाय। होता भी यही है, अपना प्रेमदान करनेके पहले भगवान् और सबसे प्रेम हटा लेना चाहते हैं, इसलिये लोग डर जाते हैं। एक गुजराती कविने कहा है-

प्रेम पंथ पावकनी ज्वाला भाली पाछा भागे जोने।

माँहि पड़या ते महारस माणे देखनारा दाझे जोने ॥

प्रेमका मार्ग धधकती हुई आगकी ज्वाला है, इसे देखकर ही लोग वापस भाग जाते हैं; परंतु जो उसमें कूद पड़ते हैं, वे महान् आनन्दका उपभोग करते हैं। देखनेवाले जलते हैं।

९७-किसी भी प्रकारसे सत्पुरुषोंका मिलना हो जाय तो बस, काम हो गया।

९८-सच्चे सन्तका मिलना दुर्लभ है; पर यदि वे मिल गये तो फिर उनका मिलना अमोघ है।

९९-सच्चे सन्त यदि किसीके द्वारा सताये भी जाते हैं तो भी वे उसका कल्याण ही करते हैं। सच्चे सन्तके द्वारा किसीकी हानि होती ही नहीं, पर भगवान् इस बातको सहन नहीं करते। काकभुशुण्डिजीने गर्वमें आकर अपने गुरुका अपमान किया; गुरुने कुछ भी नहीं कहा, पर भगवान् शंकरने काकभुशुण्डिको शाप दे दिया। गुरुने शंकरसे प्रार्थना करके शापको वरदानके रूपमें परिणत करा दिया तथा अन्तमें काकभुशुण्डिजीको भगवत्प्राप्ति हुई। इस प्रकार सन्त अपनी दयासे बुरे फलको अच्छेमें बदल देते हैं।

१००-सन्त यदि किसीपर क्रोध करते हैं तो वह क्रोध भी किसीके लिये हानिकर नहीं होता, उस क्रोधसे भी लाभ ही होता है; नलकूबर- मणिग्रीवने नारदजीका तिरस्कार किया। ये दोनों यक्ष जलमें नंगे स्नान कर रहे थे। नारदजीके आ जानेपर उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया। नारदजीने शाप दे दिया। शापसे वे जड़ वृक्ष बन गये, पर वृक्ष बनकर भगवान् श्रीकृष्णके अंगस्पर्शको पाकर वे कृतार्थ हो गये। सन्तोंका शाप भी पापोंसे शुद्ध करके अन्तमें भगवान्से मिला देता है।

१०१-ईसाको शूली दी गयी, पर ईसाने सभी सतानेवालोंका भगवान्से मंगल मनाया। सन्तका स्वभाव ही ऐसा होता है।

१०२-सन्त हरिदासजीपर मार पड़ी, शरीरसे खून निकलने लगा। मारनेवाले कहते- 'हरि नाम लेना छोड़ दो।' हरिदासजीने सोचा- ये हमें मारते हैं तथा मारते हुए हरि-नाम लेनेके लिये मना करते हुए इनके मुँहसे हरि-नामका उच्चारण हो जाता है, इससे अच्छी बात और क्या होगी। हरिदासजीने कहा- 'भैया! फिर मारो और हरि नाम लो!' मार पड़ती गयी। हरिदास बेहोश हो गये। मरा जानकर लोगों ने उन्हें गंगाजीमें फेंक दिया, पर वे मरे नहीं थे। गंगाजीसे बाहर निकल आये और भगवान्से मारनेवालोंके कल्याणकी प्रार्थना करने लगे।

उमा संत कड़ इहड़ बड़ाई । मंद करत जो करड़ भलाई ॥

- यही सन्तका महत्त्व है।

१०३-ऐसे पुरुष अत्यन्त दुर्लभ हैं, जो हैं वे ही सन्त हैं।

१०४-कुछ सत्पुरुष ऐसे होते हैं कि बुराई करनेवालोंकी बदलेमें बुराई तो नहीं करते, पर भला भी नहीं करते। अवश्य ही ऐसे पुरुष भी बहुत थोड़े होते हैं; क्योंकि किसीके द्वारा की हुई बुराईको शान्तिसे

सह लेना भी बड़ा कठिन है।

१०५-परोपकारी पुरुष कुछ ऐसे भी होते हैं, जो भला न करनेवालोंका भी भला करते हैं।

१०६-सन्तोंद्वारा किसीका भी बुरा नहीं होता।

१०७-सन्त स्वभावसे ही सबका मंगल करते हैं। जिस प्रकार सूर्य सहज ही अन्धकारका नाश करते हैं, उसी प्रकार सन्त स्वाभाविक ही निर्मल बनायेंगे।

१०८-गुर्साईंजी महाराजने चन्दन एवं कुल्हाड़ेकी उपमा देकर सन्त किस प्रकार बुरा करनेवालेका भला करते हैं, यह बात दिखलायी है, बिलकुल ऐसी ही बात है। बुरा करनेवालेको भी सन्त अपनी ओरसे उत्तम-से-उत्तम चीज ही देते हैं।