न जीवन में संतुष्टि मिलती है, न लालच खत्म होता है इस पर विजय कैसे प्राप्त हो?: श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज के अमृत वचन
श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज के वचनों के माध्यम से जानिए जीवन में संतुष्टि और लालच पर विजय पाने के दिव्य उपाय, सिर्फ उनके सत्संग के आधार पर।
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राधे-राधे: संतोष और लालच पर महाराज जी के अद्भुत उपदेश
संसार में हर व्यक्ति संतुष्टि की तलाश में है, परंतु न तो संतुष्टि मिलती है और न ही लालच का अंत होता है। इस शाश्वत प्रश्न का समाधान केवल संतों की वाणी में है। श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज ने अपने सत्संग में इस विषय पर गहन प्रकाश डाला है। प्रस्तुत है उन्हीं के वचनों के आधार पर एक विस्तृत आलेख, जिसमें उनके हर उपदेश को प्रमुखता से प्रस्तुत किया गया है1।
संतोष का मार्ग: नाम जप ही समाधान
महाराज जी कहते हैं:
"ना जीवन में संतुष्टि मिलती है, ना लालच कम हो रहा है। नाम जप! जितना भगवान का नाम जप करोगे उतना हृदय पवित्र होगा। पवित्र हृदय में जथा लाभ संतोष सदा। काहु सो कछु न चांगो। जो संतोष है वही कामनाओं को शांत करता है। बिन संतोष न काम न साही, अछत काम सुख सपनो ना। जब तक संतोष नहीं आता तब तक लालच और कामना बढ़ती रहती है।"
महाराज जी स्पष्ट कहते हैं कि जब तक मनुष्य के भीतर संतोष नहीं आता, तब तक उसकी इच्छाएँ और लालच बढ़ते ही रहते हैं। संतोष का एकमात्र उपाय है – भगवान का नाम जपना। जितना अधिक नाम जप, उतनी ही शांति, संतोष और आनंद की अनुभूति होगी।
लालच और इच्छाओं पर विजय: इंद्रिय संयम का महत्व
महाराज जी पूछते हैं:
"क्या घी में आग डालने से आग बुझ जाएगी? इंद्रियों को रोकने से हम इंद्रिय विजय हो सकते हैं, ना कि इंद्रियों के भोगने से। भोगने से इंद्रियां कभी तृप्त हुई हैं? भोगते-भोगते मर गए, अनंत जन्म व्यतीत हो गए, लेकिन आज तक तृप्ति नहीं हुई।"
यहां महाराज जी अत्यंत स्पष्ट हैं – इंद्रियों का भोग करने से तृप्ति नहीं मिलती, बल्कि और अधिक असंतोष और लालसा जन्म लेती है। इंद्रियों पर नियंत्रण, संयम और भगवान का नाम जप ही सच्ची विजय है।
भगवान का नाम स्मरण: हर विपत्ति से रक्षा
महाराज जी कहते हैं:
"हरि स्मृति सर्व विपद विमोक्षणम। भगवान की याद, भगवान का नाम जप समस्त दुख और विपत्तियों से बचा लेता है।"
संतोष, शांति और आनंद की प्राप्ति के लिए निरंतर भगवान का मधुर नाम स्मरण ही सर्वोत्तम उपाय है।
सच्चा प्रेम और समर्पण: भगवान ही सब कुछ
महाराज जी प्रेम की परिभाषा देते हैं:
"प्रेम में क्या है? बिक जाना होता है। जिससे हम प्यार करते हैं, उसके हाथ बिक गए। यहां लोक में प्रेम थोड़ी होता है, यहां तो काम वासना है। प्रेम तो भगवान से होता है। जब प्यार शुद्ध है, वहीं भगवान विराजमान हैं।"
संसार का प्रेम स्वार्थ और वासना से भरा है, लेकिन भगवान से प्रेम शुद्ध, निष्काम और समर्पणमय होता है। महाराज जी कहते हैं, "आप जैसे प्यार करने लगे तो मुझे लगता है मेरा प्रभु इस रूप में प्यार कर रहा है।"
धैर्य और विकलता: भगवत मिलन की उत्कंठा
महाराज जी कहते हैं:
"भगवान के लिए धैर्य नहीं धारण करना चाहिए। कि कभी ना कभी तो मिल ही जाएंगे – नहीं! अभी मिलो, आज ही मिलो। हम रोएं, हम विकल हो जाएं, हमारा धैर्य टूट जाए, यही उत्तम उन्नति है।"
भगवान की प्राप्ति के लिए धैर्य नहीं, बल्कि उत्कंठा और तड़प आवश्यक है।
गुरु पूर्णिमा और गुरु का महत्व
महाराज जी बताते हैं:
"गुरु पूर्णिमा को अपने गुरुदेव के साक्षात दर्शन करने चाहिए। पत्र, पुष्प, फल जो भी है, उनके चरणों में चढ़ाएं। उनकी आज्ञा के अंतर्गत रहना ही गुरु पूजा है।"
गुरु के प्रति श्रद्धा, सेवा और समर्पण ही साधक का कर्तव्य है।
विदेश जाना या न जाना: संस्कृति का ध्यान
महाराज जी कहते हैं:
"विदेश जाना चाहिए, ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, लेकिन अपनी संस्कृति को ना भूलें। मांस, मदिरा, व्यभिचार – इन दोषों से बचना चाहिए। अपनी संस्कृति को वहां फैलाएं, उनकी संस्कृति को अपने में ना आने दें।"
विदेश में जाकर भी भारतीय संस्कृति, आचरण और मूल्यों को बनाए रखना आवश्यक है।
धन का मोह: माया का कपट रूप
महाराज जी कहते हैं:
"जिस धन को कमाने के लिए मनुष्य इतने कष्ट सहता है, वही धन उसे अपनों से दूर कर देता है। माया का यह कपट रूप है। बैंक बैलेंस हो जाए, धनी बन जाऊं, लेकिन अंत में सब यहीं रह जाता है।"
धन का मोह अंततः छल, कपट और दुख ही देता है। धन का सही उपयोग – संत सेवा, गौ सेवा, समाज सेवा और भजन में है।
नाम जप का फल: दूसरों के लिए भी समर्पण
महाराज जी बताते हैं:
"जो नाम जप करें, पहले भगवान को समर्पित करें। फिर भगवान से प्रार्थना करें, जिसके प्रति आपको समर्पित करना है। नाम जप का फल दूसरों को समर्पित कर सकते हैं, उसका भी पुण्य आपको मिलेगा।"
नाम जप का पुण्य दूसरों के कल्याण के लिए भी समर्पित किया जा सकता है।
कर्म और भाग्य: नया भाग्य रचें
महाराज जी कहते हैं:
"ज्योतिष में दो ही बातें निर्धारित हैं – पूर्व का सुख और दुख। नए कर्म तो निर्धारित नहीं हैं। भजन करना, सत्कर्म करना, दान करना, तपस्या करना – ये हमारे भाग्य में नहीं लिखा, ये हमें करना है।"
मनुष्य अपने कर्मों से नया भाग्य रच सकता है, केवल पूर्व निर्धारित भाग्य पर निर्भर रहना उचित नहीं।
कर्म योग: हर कार्य भगवान को समर्पित करें
महाराज जी कहते हैं:
"जिस काम में मन लग जाता है, उस काम को भी भगवान को समर्पित कर दो, यह कर्म योग बन जाएगा। नाम जप करो, और जब नाम भूलकर कोई कार्य कर रहे हो, तो उस कार्य को भगवान को समर्पित कर दो।"
संसार के हर कार्य को भगवान को समर्पित करना ही सच्चा कर्म योग है।
सत्संग और नाम प्रचार: दूसरों को भी प्रेरित करें
महाराज जी कहते हैं:
"अपने मित्रों को सदुपदेश देना चाहिए, सदमार्ग में चलाना चाहिए। संत से सुना दूसरों को सुना सकते हैं। अपने प्रिय प्रभु के नाम को सैकड़ों में बांटते हैं, तो उसका भी लाभ हमें मिलता है।"
भगवान के नाम और सत्संग का प्रचार-प्रसार करना पुण्यदायक है।
मन की खिन्नता: भगवत प्राप्ति का द्वार
महाराज जी कहते हैं:
"मन खिन्न हो जाए तो आनंद की खोज होती है, शांति का रास्ता चयन करने का मन होता है। संसार की तरफ मत जाना, भगवान की तरफ बढ़ो। नाम जप करो, बुद्धि का विकास होगा, मार्ग प्रशस्त होगा।"
मन की खिन्नता भी भगवत प्राप्ति की ओर ले जा सकती है, यदि उसका उपयोग नाम जप में किया जाए।
सच्चे संत की पहचान: आचरण में सुधार
महाराज जी बताते हैं:
"सच्चे संत की पहचान है – उनके संग से, उनके वचन से, बिना प्रयास के गंदे आचरण छूटने लगें, भगवान से प्रेम बढ़ने लगे। बाहरी लक्षणों से नहीं, आंतरिक प्रभाव से संत की पहचान होती है।"
सच्चे संत के संग से साधक का जीवन स्वतः सुधरने लगता है।
गुरु और शिष्य का संबंध: शुद्धता और मर्यादा
महाराज जी कहते हैं:
"गुरु का अर्थ है – मार्गदर्शक, पिता। तन का समर्पण का अर्थ – शरीर से वही कर्म करना जो शास्त्र और गुरु आज्ञा करें। कोई गुरु गंदी बातें कहे, तन का दान मांगे, तो वह गुरु नहीं, पाखंडी है। ऐसे लोगों से तत्काल दूरी बना लें।"
गुरु-शिष्य संबंध में शुद्धता, मर्यादा और आदर्श का पालन आवश्यक है।
पाप और आत्महत्या: भाग्य और कर्म का संबंध
महाराज जी स्पष्ट करते हैं:
"आत्महत्या बहुत बड़ा पाप है। शरीर भगवान का दिया हुआ है, उसका दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। दुख-सुख प्रारब्ध के अनुसार भोगना चाहिए, आत्महत्या कभी समाधान नहीं।"
हर परिस्थिति में जीवन को भगवान की इच्छा मानकर जीना चाहिए, आत्महत्या का विचार भी नहीं करना चाहिए।
निष्कर्ष: महाराज जी के वचनों का सार
श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज के वचनों का सार यही है कि जीवन में संतोष, शांति और आनंद का एकमात्र मार्ग है – भगवान का नाम जप, इंद्रिय संयम, गुरु सेवा, धन का सही उपयोग, कर्म योग, और सच्चे संत का संग। लालच और असंतोष से मुक्ति केवल भजन, सत्संग और समर्पण से ही संभव है।
राधे-राधे!
स्रोत: 1