नसबंदी, ऑपरेशन करवाने से क्या हानि है ?

What is the harm from undergoing sterilisation or operation?

महापाप से बचो AVOD THE BIGOTRY

गीता प्रेस से प्रकाशित पुस्तक ''गृहस्थ में कैसे रहें ?'' से यह लेख पेश. पुस्तक के लेखक स्वामी रामसुखदास जी हैं.

8/26/20241 min read

नसबंदी, ऑपरेशन करवाने से क्या हानि है ?

यह प्रत्यक्ष देखा जा सकता है कि जिन लोगों ने नसबंदी करवाई है, उनमें से बहुत के शरीर और हृदय कमजोर हो गए हैं। उनके शरीर में कई रोग पैदा हुए हैं, हो रहे है और होते रहेंगे। पशुओं में भी हम देखते हैं कि जो बछड़े बैल बना दिए जाते हैं, उनका पुरषत्व नष्ट होने से उनके मांस में वह शक्ति नहीं रहती, जो शक्ति न बनाए हुए बछड़ों के मांस में रहती है। अतः बैल बनाए हुए बछड़ों का मांस ईराक, ईरान आदि में देशों में सस्ता बिकता है और बिना बैल बनाए हुए बछड़ों का मांस महंगा बिकता है-ऐसा हमने सुना हे। इसलिए नसबंदी के द्वारा पुरषत्व का अवरोध करने से, नष्ट करने से शरीरिक शक्ति नष्ट होती है और उत्साह, निर्भरता आदि मानसिक शक्ति भी नष्ट होती है।

जो नसबन्दीके द्वारा अपना पुरुषत्व नष्ट कर देते हैं, वे नपुंसक (हिजड़े) हैं। उनके द्वारा पितरों को पिण्ड-पानी नहीं मिलता*। (* अङ्गहीनाश्रोत्रियषण्ढशूद्रवर्जम्। (कात्यायनश्रौतसूत्रं १।१।५)) ऐसे पुरुषको देखना भी अशुभ माना गया है। यात्रा के समय ऐसे व्यक्तिका दीखना अपशकुन है।

जिन माताओं ने नसबन्दी आपरेशन करवाया है, उनमेंसे बहुतों को लाल एवं सफेद प्रदर हो गया है, जिसका कोई इलाज नहीं है। राजस्थान में ही नसबन्दी आपरेशनके कारण अब तक सैकड़ों स्त्रियाँ मर चुकी हैं और कइयोंको ऐसे रोग हो गये हैं कि डाक्टरों ने जवाब दे दिया है। यह बात समाचारपत्रों में भी आयी है। आपरेशन करवाने से स्त्रियोंके शरीरमें कमजोरी आ जाती है; उठते-बैठते समय आँखों के आगे अँधेरा आ जाता है, छाती और पीठ में दर्द होने लगता है और काम करने की हिम्मत नहीं होती। ऐसा हमने डाक्टरों से सुना है।

जो स्त्रियाँ नसबन्दी आपरेशन करा लेती हैं, उनका स्त्रीत्व अर्थात् गर्भ धारण करनेकी शक्ति नष्ट हो जाती है। ऐसी स्त्रियों का दर्शन भी अशुभ है, अपशकुन है। भगवान्‌ की दी हुई शक्ति का नाश करने का किसीको भी अधिकार नहीं है। उसका नाश करना अनधिकार चेष्टा है, अपराध है। जिन्होंने आपरेशनके द्वारा अपना स्त्रीत्व नष्ट किया है, वे तो पाप की भागिनी हैं ही, पर जो दूसरोंको आपरेशन करवाने की प्रेरणा करती हैं, आग्रह करती हैं, वे नया पाप करती हैं। जैसे गीताके अध्ययन का बड़ा माहात्म्य है, पर उससे भी अधिक गीताके प्रचारका माहात्म्य है (गीता १८।६९), ऐसे ही जो दूसरोंमें आपरेशनका प्रचार करती हैं, वे बड़ा भारी पाप करती हैं और गोघातकोंकी संख्या बढ़ानेमें सहायक होनेसे गोहत्याके पापमें भागीदार होती हैं। भोली बहनोंको इस बातका पता नहीं है, इसलिये वे अनजानमें बड़ा भारी अपराध, पाप कर बैठती हैं। उन्हें इस पाप से बचना चाहिये।

जो कोई भी किसी प्रकार का अपराध करता है, उसकी प्राण-शक्ति का जल्दी नाश हो जाता है और उसकी मृत्यु जल्दी हो जाती है। अपराध, पाप करनेपर अथवा उसको करनेकी मनमें आनेपर श्वास तेजीसे चलने लगते हैं, प्राण क्षुब्ध हो जाता है. इस यह प्रत्यक्ष बात है। कोई भी अनुभव करके देख सकता है।

नसबन्दी आपरेशन कराना व्यभिचारको खुला अवसर देना है, जो बड़ा भारी पाप है। पशुओंकी बलि देने, वध करनेका अभिचार' कहते हैं। उससे भी जो विशेष अभिचार होता है। उसको 'व्यभिचार' कहते हैं। इससे मनुष्यकी धार्मिक, पारमार्थिक रुचि (भावना) नष्ट हो जाती है और उसका महान् पतन हो। जाता है।

मनुष्य-शरीर केवल परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है, पर उसको परमात्माकी तरफ न लगाकर केवल भोग भोगने में ही लगाना और इतना ही नहीं, केवल भोग भोगने के लिये बड़े-बड़े पाप करना, गर्भपात करना, नसबन्दी करना, आपरेशन करना कितने भारी अनर्थ की बात है! गर्भपात, नसबन्दी आदि करने से सिवाय भोग भोगने के और क्या सिद्ध होता है ? नसबन्दी से क्या किसीको कोई धार्मिक-पारमार्थिक लाभ हुआ है, होगा और हो सकता है? नसबन्दी करनेसे केवल भोगपरायणता ही बढ़ रही है। जितनी भोगपरायणता आज मनुष्योंमें हो रही है, उतनी पशुओंमें भी नहीं है। यदि आप सन्तान नहीं चाहते तो संयम रखो, जिससे आपके शरीरमें बल रहेगा, उत्साह रहेगा और आपमें धर्म-परायणता, ईश्वर-परायणता आयेगी। आपका मनुष्य-जन्म सफल हो जायगा। सन्तों ने कहा है-के शत्रवः सन्ति निजेन्द्रियाणि तान्येव मित्राणि जितानि यानि ॥ (प्रश्नोतरी ४)

अर्थात मनुष्य इन्द्रियों के वश में हो जाता है तो इन्द्रियां उसकी शत्रु बन जाती है, जिससे उसके लोक परलोक बिगड़ जाते हैं। परंतु वह इंद्रियों को जीत लेता है तो वे इंद्रियां उसकी मित्र बन जाती हैं, जिससे उसके लोक-परलोक सुधर जाते हैं। इसलिए गीता ने कहा है-

उद्धेरदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।

आत्मैव ह्ात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।।

‘अपने द्वारा अपना उद्धार करे, अपना पतन न करे, क्योंकि आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।‘

यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक "गृहस्थ कैसे रहे ?" से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुखदास जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.

स्वामी रामसुखदास जी का जन्म वि.सं.१९६० (ई.स.१९०४) में राजस्थानके नागौर जिलेके छोटेसे गाँवमें हुआ था और उनकी माताजीने ४ वर्षकी अवस्थामें ही उनको सन्तोंकी शरणमें दे दिया था, आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न लगाकर सदा भगवान्‌में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर, दूसरोकों मान देकर; द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर अपने चित्रकी कोई पूजा न करवाकर लोग भगवान्‌में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर गंगातट, स्वर्गाश्रम, हृषिकेशमें आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि.सं.२०६२ (दि. ३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्तमें भगवद्-धाम पधारें । सन्त कभी अपनेको शरीर मानते ही नहीं, शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरत्वमें रहता हूँ‒यह उनका अनुभव होता है । वे सदा अपने कल्याणकारी प्रवचन द्वारा सदा हमारे साथ हैं । सन्तोंका जीवन उनके विचार ही होते हैं ।