परिवारमें झगड़ा, कलह, अशान्ति आदि होनेका क्या कारण है?

Solution to fights Question- What is the reason for fights, quarrels, unrest etc. in the family?

लड़ाई झगड़े का समाधान RESOLVE CONFLICT

गीता प्रेस से प्रकाशित पुस्तक ''गृहस्थ में कैसे रहें ?'' से यह लेख पेश. पुस्तक के लेखक स्वामी रामसुखदास जी हैं.

9/4/20241 min read

लड़ाई-झगड़ेका समाधान

प्रश्न- परिवारमें झगड़ा, कलह, अशान्ति आदि होनेका क्या कारण है?

उत्तर- हरेक प्राणी अपने मनकी कराना चाहता है, अपनी अनुकूलता चाहता है, अपना सुख-आराम चाहता है, अपनी महिमा चाहता है, अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है-ऐसे व्यक्तिगत स्वार्थके कारण ही परिवारमें झगड़ा, कलह, अशान्ति आदि होते हैं। जैसे, कुत्ते आपसमें बड़े प्रेमसे खेलते हैं, पर रोटीका टुकड़ा सामने आते ही लड़ाई शुरू हो जाती है; अतः लड़ाईका कारण रोटीका टुकड़ा नहीं है, प्रत्युत व्यक्तिगत स्वार्थ है।

कुटुम्बमें जो केवल अपना सुख-आराम चाहता है, वह कुटुम्बी नहीं होता, प्रत्युत एक व्यक्ति होता है। कुटुम्बी वही होता है, जो कुटुम्बमें बड़े, छोटे और समान अवस्थावाले - सबका हित चाहता है और हित करता है। अतः जो कुटुम्बमें शान्ति चाहता है, कलह नहीं चाहता, उसको अपना कर्तव्य और दूसरोंका अधिकार देखना चाहिये अर्थात् अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये और दूसरोंका हित करना चाहिये, आदर-सत्कार, सुख-आराम देना चाहिये।

यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक "गृहस्थ कैसे रहे ?" से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुखदास जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.

स्वामी रामसुखदास जी का जन्म वि.सं.१९६० (ई.स.१९०४) में राजस्थानके नागौर जिलेके छोटेसे गाँवमें हुआ था और उनकी माताजीने ४ वर्षकी अवस्थामें ही उनको सन्तोंकी शरणमें दे दिया था, आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न लगाकर सदा भगवान्‌में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर, दूसरोकों मान देकर; द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर अपने चित्रकी कोई पूजा न करवाकर लोग भगवान्‌में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर गंगातट, स्वर्गाश्रम, हृषिकेशमें आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि.सं.२०६२ (दि. ३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्तमें भगवद्-धाम पधारें । सन्त कभी अपनेको शरीर मानते ही नहीं, शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरत्वमें रहता हूँ‒यह उनका अनुभव होता है । वे सदा अपने कल्याणकारी प्रवचन द्वारा सदा हमारे साथ हैं । सन्तोंका जीवन उनके विचार ही होते हैं ।