भगवान एक ही हैं तो इतने धर्म सम्प्रदाय क्यों हैं? (Shri Hit Premanand Govind Sharan Ji Maharaj, Bhajan Marg Satsang, 16 जून 2025)

"Shri Hit Premanand Govind Sharan Ji Maharaj द्वारा प्रस्तुत: भगवान एक हैं तो इतने धर्म और सम्प्रदाय क्यों हैं? जानिए आध्यात्मिक दृष्टि से विविध मार्गों का रहस्य, प्रेम, भक्ति और आत्मज्ञान की व्याख्या।"

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6/16/20251 मिनट पढ़ें

प्रस्तावना

"भगवान एक ही हैं, तो उनको प्राप्त करने के लिए इतने धर्म और सम्प्रदाय क्यों हैं?" यह प्रश्न हर जिज्ञासु साधक के मन में कभी न कभी अवश्य उठता है। श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज ने अपने प्रवचन में इस गूढ़ विषय को अत्यंत सरल और व्यावहारिक दृष्टांतों के माध्यम से स्पष्ट किया है। इस लेख में हम उनके विचारों का विस्तार से विश्लेषण करेंगे, जिससे साधक को न केवल उत्तर मिलेगा, बल्कि आत्मिक शांति और मार्गदर्शन भी प्राप्त होगा1.

धर्म और सम्प्रदाय की विविधता का मूल

1. एक परमात्मा, अनेक रूप

महाराज जी समझाते हैं कि परमात्मा एक ही हैं, लेकिन वे अनंत रूपों में प्रकट होते हैं। जैसे एक शीशे के महल में खड़े होकर हम अपने ही अनेक रूप देख सकते हैं, वैसे ही एक परमात्मा अपने भक्तों के भावानुसार अनेक रूपों में प्रकट होते हैं। यह विविधता केवल हमारी दृष्टि और भावनाओं का परिणाम है, न कि ईश्वर की कोई सीमाबद्धता1.

2. भावों की विविधता और मार्गों की आवश्यकता

हर जीव की भावनाएँ, संस्कार और समझ अलग-अलग होती है। कोई भगवान को मित्र मानता है, कोई पुत्र, कोई स्वामी, कोई माता। इसी भाव की पुष्टि के लिए भगवान अलग-अलग रूपों में, अलग-अलग मार्गों से भक्तों के समक्ष आते हैं। यही कारण है कि विभिन्न सम्प्रदाय और मार्ग अस्तित्व में आए हैं—हर भाव, हर प्रवृत्ति, हर मनोदशा के लिए एक विशेष मार्ग1.

उदाहरणों द्वारा विषय की व्याख्या

1. शीशे के महल का दृष्टांत

महाराज जी कहते हैं कि जैसे शीशे के महल में एक ही व्यक्ति के अनेक प्रतिबिंब बन जाते हैं, वैसे ही एक परमात्मा भक्तों के हृदय में उनके भाव के अनुसार अलग-अलग रूपों में प्रकट होते हैं। यह विविधता केवल दृष्टिकोण और भाव की है, सत्य तो एक ही है1.

2. घाट और यमुना का दृष्टांत

जैसे यमुना नदी एक ही है, लेकिन उसके किनारे अनेक घाट हैं—हर घाट का अपना नाम, अपनी पहचान, अपनी परंपरा है। लोग अपनी सुविधा, रुचि और परंपरा के अनुसार अलग-अलग घाटों पर स्नान करते हैं, लेकिन जल तो एक ही है। इसी प्रकार, धर्म और सम्प्रदाय अनेक हो सकते हैं, परंतु परमात्मा एक ही हैं1.

सम्प्रदायों की उत्पत्ति का कारण

1. मानव की सीमित समझ

मनुष्य की समझ सीमित है। वह अपने अनुभव, संस्कार और वातावरण के अनुसार ईश्वर की कल्पना करता है। यही कारण है कि अलग-अलग स्थानों, कालों और संस्कृतियों में अलग-अलग सम्प्रदाय और धार्मिक परंपराएँ विकसित हुईं1.

2. मार्गों की आवश्यकता

हर साधक की मानसिकता, योग्यता और रुचि भिन्न होती है। कोई ज्ञान मार्ग में रुचि रखता है, कोई भक्ति में, कोई कर्म में। इसी कारण भगवान ने विभिन्न मार्गों का निर्माण किया, ताकि हर जीव अपनी प्रवृत्ति के अनुसार ईश्वर तक पहुँच सके1.

क्या सम्प्रदाय आवश्यक हैं?

1. भाव की पुष्टि के लिए

महाराज जी स्पष्ट करते हैं कि सम्प्रदायों का उद्देश्य केवल भक्त के भाव की पुष्टि करना है। भगवान सर्वनाम, सर्वरूप वाले हैं; वे हर नाम, हर रूप, हर भाव में स्वीकार्य हैं। कोई भगवान को 'माँ' कहकर पुकारता है, कोई 'पिता', कोई 'मित्र', कोई 'स्वामी'। भगवान हर भाव को स्वीकार करते हैं और उसी रूप में भक्त के समक्ष प्रकट होते हैं1.

2. एकता में अनेकता

सम्प्रदायों की विविधता के बावजूद, उनका अंतिम लक्ष्य एक ही है—परमात्मा की प्राप्ति। जैसे अलग-अलग रास्ते एक ही मंजिल तक पहुँचते हैं, वैसे ही सभी सम्प्रदाय, मार्ग और परंपराएँ अंततः उसी एक परमात्मा तक ले जाती हैं1.

क्या सम्प्रदायों से भेदभाव उचित है?

1. सम्प्रदायों की सीमा

महाराज जी कहते हैं कि सम्प्रदाय केवल मार्ग हैं, मंजिल नहीं। यदि कोई अपने मार्ग या सम्प्रदाय को ही अंतिम सत्य मानकर दूसरों के मार्ग को तुच्छ समझता है, तो वह ईश्वर के वास्तविक स्वरूप को नहीं समझ पाया। भगवान किसी एक सम्प्रदाय के बंधन में नहीं बंधे हैं1.

2. सभी मार्गों का सम्मान

सच्चा साधक वही है, जो सभी मार्गों का सम्मान करता है और जानता है कि हर मार्ग का उद्देश्य एक ही है—ईश्वर की प्राप्ति। सम्प्रदायों में भेदभाव, विवाद या अहंकार केवल अज्ञान का परिणाम है1.

आत्मा और मन का भेद: सम्प्रदायों की दृष्टि से

महाराज जी के अनुसार, आत्मा और मन अलग-अलग हैं। आत्मा अविनाशी है, मन विनाशी। सम्प्रदाय और मार्ग मन की विविधताओं, संकल्प-विकल्पों के अनुसार बनते हैं, लेकिन आत्मा का लक्ष्य एक ही है—परमात्मा में लीन होना1.

भक्ति, ज्ञान और कर्म: मार्गों की श्रेष्ठता

1. भक्ति का सर्वोच्च स्थान

महाराज जी बताते हैं कि भक्ति मार्ग में प्रेम सर्वोपरि है। ज्ञान और कर्म मार्ग में भी यदि प्रेम नहीं है, तो वे अधूरे हैं। भक्ति में दैन्यता, प्रेम और समर्पण की प्रधानता है, जो सीधे ईश्वर से जोड़ती है। भक्ति से ही ज्ञान और वैराग्य का जन्म होता है, न कि ज्ञान से भक्ति का1.

2. मार्गों का परस्पर संबंध

ज्ञान, कर्म और भक्ति—तीनों मार्ग एक-दूसरे के पूरक हैं। लेकिन भक्ति में अहंकार का नाश होता है, दैन्यता आती है, और भक्त अपने को सदैव अधम मानता है। यही भक्ति की वास्तविक पहचान है1.

मनुष्य जीवन का महत्व: सम्प्रदायों की भूमिका

महाराज जी समझाते हैं कि 84 लाख योनियों में केवल मनुष्य योनि ही ऐसी है, जिसमें हम अपने कर्मों का सुधार कर सकते हैं और ईश्वर की प्राप्ति कर सकते हैं। अन्य योनियों में केवल भोग है, कर्म नहीं। सम्प्रदाय और मार्ग केवल मनुष्य जीवन में ही सार्थक हैं, क्योंकि यहीं विवेक, चयन और साधना संभव है1.

क्या मूक जीवों का कल्याण संभव है?

महाराज जी के अनुसार, मूक जीव अपने कर्मों के अनुसार ही भोगते हैं। उनके लिए कोई विशेष मार्ग या साधना नहीं है। मनुष्य जीवन में ही साधना, भजन, नाम जप और ईश्वर प्राप्ति संभव है। यही कारण है कि मनुष्य जीवन को दुर्लभ और महत्वपूर्ण कहा गया है1.

साधना का सार: सम्प्रदायों से ऊपर

1. नाम जप की महिमा

महाराज जी बार-बार नाम जप की महिमा बताते हैं। वे कहते हैं कि चाहे कोई भी मार्ग हो, सम्प्रदाय हो, यदि साधक सच्चे मन से भगवान का नाम जपता है, तो उसे परमात्मा की प्राप्ति अवश्य होती है। नाम जप के लिए कोई विधि-निषेध नहीं है, यह सर्वसुलभ और सर्वमान्य साधना है1.

2. आचरण और आहार की शुद्धता

साधना में आचरण और आहार की शुद्धता भी आवश्यक है। पवित्र आचरण, शुद्ध आहार, भगवत शास्त्रों का स्वाध्याय, और सत्संग—ये सभी साधक को ईश्वर के निकट ले जाते हैं, चाहे वह किसी भी सम्प्रदाय का अनुयायी हो1.

सम्प्रदायों की विविधता: एकता का संदेश

1. विविधता में एकता

महाराज जी का संदेश स्पष्ट है—सम्प्रदायों की विविधता में भी एकता है। हर मार्ग, हर सम्प्रदाय, हर परंपरा का अंतिम उद्देश्य एक ही है—परमात्मा की प्राप्ति। विविधता केवल साधना की शैली, भाषा, परंपरा या भाव की है, लक्ष्य एक ही है1.

2. सभी मार्गों का सम्मान करें

साधक को चाहिए कि वह अपने मार्ग का पालन श्रद्धा से करे, लेकिन अन्य मार्गों का भी आदर करे। सम्प्रदायों में भेदभाव, विवाद या अहंकार केवल अज्ञान का परिणाम है। सच्चा साधक वही है, जो सभी मार्गों का सम्मान करता है और जानता है कि हर मार्ग का उद्देश्य एक ही है—ईश्वर की प्राप्ति1.

निष्कर्ष

"भगवान एक हैं, तो इतने धर्म और सम्प्रदाय क्यों?"—इस प्रश्न का उत्तर श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज ने अत्यंत सरलता, प्रेम और व्यावहारिकता से दिया है। सम्प्रदायों की विविधता मानव की भावनाओं, संस्कारों और समझ की विविधता का परिणाम है। परमात्मा सर्वरूप, सर्वनाम, सर्वभाव वाले हैं—वे हर मार्ग, हर भाव, हर नाम में उपलब्ध हैं। साधक को चाहिए कि वह अपने भाव, श्रद्धा और भक्ति के साथ साधना करे, और सभी मार्गों का सम्मान करे। तभी वह वास्तविक ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर हो सकता है12.

अनुशंसा

  • अपने मार्ग का श्रद्धापूर्वक पालन करें।

  • अन्य सम्प्रदायों, मार्गों और साधकों का सम्मान करें।

  • नाम जप, शुद्ध आहार, पवित्र आचरण और सत्संग को अपने जीवन का अंग बनाएं।

  • सम्प्रदायों में भेदभाव या विवाद से बचें, क्योंकि सभी मार्गों का लक्ष्य एक ही है—परमात्मा की प्राप्ति12.

यह लेख श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज के प्रवचन एवं उनके द्वारा दिए गए दृष्टांतों पर आधारित है, जो साधकों को एकता, प्रेम और सच्ची भक्ति की ओर प्रेरित करता है।