प्रश्न-वर्तमान सरकार गर्भपात, नसबंदी आदि को पाप नहीं मानती, प्रत्युत अच्छा कार्य मानती है, तो क्या ऐसा करनेवालों को पाप नहीं लगेगा ?

Question- The present government does not consider abortion, sterilization etc. as sins but considers them good deeds. So will those who do this not commit sins?

महापाप से बचो AVOD THE BIGOTRY

गीता प्रेस से प्रकाशित पुस्तक ''गृहस्थ में कैसे रहें ?'' से यह लेख पेश. पुस्तक के लेखक स्वामी रामसुखदास जी हैं.

9/1/20241 min read

प्रश्न-वर्तमान सरकार गर्भपात, नसबंदी आदि को पाप नहीं मानती, प्रत्युत अच्छा कार्य मानती है, तो क्या ऐसा करनेवालों को पाप नहीं लगेगा ?

उत्तर-पाप तो लगेगा ही, मानो चाहे मत मानो. जितने भी पाप होते हैं, वे किसी के मानने और न मानने पर निर्भर नहीं करते. पाप के विषय में अथार्त अमुक कार्य पाप है-इसमें वेद, शास्त्र और संत-वचन ही प्रमाण है.

पाप-कर्म करने से पाप लगता ही है और उसका फल भी भोगना पड़ता है. हमने देखा है कि जिस पशु की बलि चढ़ती है, उसको पीछे की टांगों से जिस वृक्ष में लटका देते है, वे वृक्ष भी उस पापके कारण सूख जाता है। जो कसाई पैसे लेकर पशुओंको काटते हैं, उनके हाथ बाद में काम नहीं करते; अतः वे हाथमें छुरी बाँधकर पशुओं को काटनेका काम करते हैं। भेड़िये के सात-सात बच्चे होते हैं और हिरन के एक-दो बच्चे ही होते हैं, फिर भी झुण्ड हिरनोंका ही होता है, भेड़ियोंका नहीं। तात्पर्य है कि हिंसा आदि पाप करने वालोंकी परम्परा ज्यादा समय नहीं चलती।

एक सन्त से किसी ने पूछा- 'जिन शास्त्रोंमें, सम्प्रदायों में बलि देने की, कुरबानी करने की आज्ञा दी गयी है, उस आज्ञाका पालन करने वाले व्यक्तियों को पाप नहीं लगता होगा; क्योंकि वे अपने ही शास्त्र, सम्प्रदाय की आज्ञाका पालन करते हैं।' उन्होंने उत्तर दिया- 'जो बलि देते हैं, कुरबानी करते हैं, वे भी अगर छः महीने हृदयसे भगवान्‌के नामका जप करें तो फिर वे बलि दे ही नहीं सकते, कुरबानी कर ही नहीं सकते।' शुद्ध अन्तःकरणवाला व्यक्ति शास्त्रकी आज्ञा होनेपर भी पाप नहीं कर सकता। अतः जिन शास्त्रोंमें बलि आदिकी आज्ञा दी गयी है, उस आज्ञाको नहीं मानना चाहिये।

एक धर्मशास्त्र होता है और एक अर्थशास्त्र। धर्मशास्त्र मनुष्यको कर्तव्यका ज्ञान कराता है, जिससे मनुष्यके लोक- परलोक सुधरते हैं। अर्थशास्त्र दृष्ट फलका वर्णन करता है। जो मनुष्य कामनाके वशीभूत होकर दृष्ट फल (धन-सम्पत्ति, पुत्र, स्वर्ग आदिकी प्राप्ति) के लिये अर्थशास्त्रकी आज्ञा मानकर पाप करते हैं, वे पापके भागी होते हैं। कारण कि अर्थशास्त्रमें कामना, सकामभावकी मुख्यता होती है और कामना सब पापोंकी जड़ है (गीता ३। ३७)। जो सौ यज्ञ करके इन्द्र (शतक्रतु) बनता है, उसके द्वारा भी शास्त्रके अनुसार (वैध) हिंसा होती है। उस हिंसाके पापका फल भोगना ही पड़ता है। इसीलिये इन्द्रपर आफत (प्रतिकूल परिस्थिति) आती है, उसकी हार होती है, वह डर के मारे भागता-फिरता है, छिपता है. उसके हृदयमें जलन हाथ में होती है। अतः हिंसाका फल मिलता ही है, कोई हिंसा माने, बाहे न माने। तात्पर्य है कि जहाँ धर्मशास्त्र और अर्थशा माने, इवन हों, वहाँ धर्मशास्त्रके ही वचन मानने चाहियेः क्योंकि अर्थशास्त्रसे धर्मशास्त्र श्रेष्ठ है, बलवान् है*।

आज सरकार गर्भ गिरानेको पाप नहीं मानती, पर न माननेसे पाप नहीं लगेगा-यह बात नहीं है। पाप तो लगेगा ही, कोई माने चाहे न माने। जैसे पहले राजालोग निषिद्ध काम करनेके लिये प्रजाको आज्ञा देते थे, प्रेरणा करते थे तो उसका पाप राजा और प्रजा दोनोंको लगता था (उदाहरणार्थ, राजा वेनने स्वयं भी निषिद्ध काम किये और प्रजासे भी करवाये), ऐसे ही आज सरकार गर्भपात आदि निषिद्ध काम करनेकी प्रेरणा करती है तो सरकारको भी पाप लगेगा और जनता (निषिद्ध काम करनेवाले) को भी।

यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक "गृहस्थ कैसे रहे ?" से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुखदास जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.

स्वामी रामसुखदास जी का जन्म वि.सं.१९६० (ई.स.१९०४) में राजस्थानके नागौर जिलेके छोटेसे गाँवमें हुआ था और उनकी माताजीने ४ वर्षकी अवस्थामें ही उनको सन्तोंकी शरणमें दे दिया था, आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न लगाकर सदा भगवान्‌में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर, दूसरोकों मान देकर; द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर अपने चित्रकी कोई पूजा न करवाकर लोग भगवान्‌में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर गंगातट, स्वर्गाश्रम, हृषिकेशमें आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि.सं.२०६२ (दि. ३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्तमें भगवद्-धाम पधारें । सन्त कभी अपनेको शरीर मानते ही नहीं, शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरत्वमें रहता हूँ‒यह उनका अनुभव होता है । वे सदा अपने कल्याणकारी प्रवचन द्वारा सदा हमारे साथ हैं । सन्तोंका जीवन उनके विचार ही होते हैं ।