प्रश्न-जिसकी स्वाभाविक ही संतान नहीं होती, उसको गर्भपात का दोष लगता है या नहीं ? प्रश्न-जो स्त्रियाँ गर्भाधान के पहले ही गोलियां खा लेती है, जिससे गर्भ रहे ही नहीं, उनको पाप लगता है क्या ?
Question-Is the one who does not have a child naturally guilty or not? Question-Are the women who take pills before conception so that they do not conceive guilty?
महापाप से बचो AVOD THE BIGOTRY
प्रश्न-जिसकी स्वाभाविक ही संतान नहीं होती, उसको दोष लगता है या नहीं ?
प्रश्न-जो स्त्रियाँ गर्भाधान के पहले ही गोलियां खा लेती है, जिससे गर्भ रहे ही नहीं, उनको पाप लगता है क्या ?
उत्तर- किसी का स्वाभाविक ही संतान नहीं होती तो यह उसका दोष नहीं है. जो कृत्रिम उपायों से मातृशक्ति का, संतान उत्पन्न करने की शक्ति का नाश करती है, उसी को दोष-पाप लगता है.
प्रश्न-जो स्त्रियाँ गर्भाधान के पहले ही गोलियां खा लेती है, जिससे गर्भ रहे ही नहीं, उनको पाप लगता है क्या ?
उत्तर- जीव मनुष्य-शरीर में आकर परमात्मा को प्राप्त कर सकता है; अपना और दूसरों का भी उद्दार कर सकता है; परन्तु अपनी भोगेच्छा के वशीभूत होकर उस जीव को ऐसा मौका न आने देना पाप है. गीता में भी भगवान् उस कामना-भोगेच्छा सुखेच्छा को ही सम्पूर्ण पापों का हेतु बताया है. परिवार-नियोजन का मतलब केवल भोगेच्छा ही है. अत: गोलियां खाकर संतति-निरोध करना पाप ही है.
यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक "गृहस्थ कैसे रहे ?" से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुखदास जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.
स्वामी रामसुखदास जी का जन्म वि.सं.१९६० (ई.स.१९०४) में राजस्थानके नागौर जिलेके छोटेसे गाँवमें हुआ था और उनकी माताजीने ४ वर्षकी अवस्थामें ही उनको सन्तोंकी शरणमें दे दिया था, आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न लगाकर सदा भगवान्में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर, दूसरोकों मान देकर; द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर अपने चित्रकी कोई पूजा न करवाकर लोग भगवान्में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर गंगातट, स्वर्गाश्रम, हृषिकेशमें आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि.सं.२०६२ (दि. ३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्तमें भगवद्-धाम पधारें । सन्त कभी अपनेको शरीर मानते ही नहीं, शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरत्वमें रहता हूँ‒यह उनका अनुभव होता है । वे सदा अपने कल्याणकारी प्रवचन द्वारा सदा हमारे साथ हैं । सन्तोंका जीवन उनके विचार ही होते हैं ।