कन्या विवाह न करके साधन-भजन में ही जीवन बिताना चाहे तो क्या यह ठीक है?
Is it right if a girl does not marry and wants to spend her life only in sadhana and bhajan?
स्त्री सम्बन्धी बातें FEMININE THINGS
प्रश्न- कन्या विवाह न करके साधन-भजन में ही जीवन बिताना चाहे तो क्या यह ठीक है?
उत्तर-कन्याके लिये विवाह न करना उचित नहीं है; क्यों वह स्वतन्त्र रहकर अपना जीवन-निर्वाह कर ले- ऐसा बहुत कठिन है अर्थात् विवाह न करने से उसके जीवन-निर्वाह में बहुत कठिनता आयेगी। जब तक माँ- -बाप हैं, तबतक तो ठीक है, पर जब माँ- बाप नहीं रहते, तो फिर प्रायः भाई लोग (अपनी स्त्रियोंके वशीभूत होने से) बहन का आदर नहीं करते, प्रत्युत बहन का तिरस्कार करते हैं, उसको हीन दृष्टि से देखते हैं। भौजाइयाँ भी उसको तिरस्कार की दृष्टि से देखती हैं। इससे कन्या के मन में पराधीनता का अनुभव होता है। अतः विवाह कर लेना अच्छा है।
हमने ऐसे स्त्री-पुरुषोंको भी देखा है, जिन्होंने विवाह से पहले ही यह प्रतिज्ञा कर ली कि हम स्त्री-पुरुषका सम्बन्ध न रखकर केवल साधन-भजन ही करेंगे; और वे अपनी प्रतिज्ञा निभाते आये हैं। यद्यपि आजके जमाने में ऐसे लड़के मिलने कठिन हैं, जो केवल साधन- भजन के लिये ही विवाह करें, तथापि उनका मिलना असम्भव नहीं है।
मीराबाई की तरह जो बचपन से ही भजन-स्मरण में लग जाय, उसकी तो बात ही अलग है; परन्तु यह विधान नहीं है, भाव है। इस भाव में भी कठिनता आती है। मीराबाई के जीवनमें बहुत कठिनता आयी थी, पर भगवान्के दृढ़ विश्वास के बलपर वह सब कठिनताओं को पार कर गयी। ऐसा दृढ़ विश्वास बहुत कम होता है। जिसमें ऐसा दृढ़ विश्वास हो, उसके लिये यह विधान नहीं है कि वह विवाह न करे अथवा वह विवाह करे। तात्पर्य है कि भगवान पर दृढ़ श्रद्धा-विश्वास हो तो मनुष्य कहीं भी रहे, वह श्रेष्ठ हो ही जायगा।
यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक "गृहस्थ कैसे रहे ?" से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुखदास जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.
स्वामी रामसुखदास जी जी का जन्म वि.सं.१९६० (ई.स.१९०४) में राजस्थानके नागौर जिलेके छोटेसे गाँवमें हुआ था और उनकी माताजीने ४ वर्षकी अवस्थामें ही उनको सन्तोंकी शरण में दे दिया था, आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न लगाकर सदा भगवान्में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर, दूसरोकों मान देकर; द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर अपने चित्रकी कोई पूजा न करवाकर लोग भगवान्में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर गंगातट, स्वर्गाश्रम, हृषिकेश में आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि.सं.२०६२ (दि. ३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्तमें भगवद्-धाम पधारें । सन्त कभी अपनेको शरीर मानते ही नहीं, शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरत्वमें रहता हूँ‒यह उनका अनुभव होता है । वे सदा अपने कल्याणकारी प्रवचन द्वारा सदा हमारे साथ हैं । सन्तोंका जीवन उनके विचार ही होते हैं ।